कुछ तो पूर्ण हुआ

हां, तो लिखा है!
किसी ने पूछा, ये जो लिखती हो भावों को अपने,
या किसी किताब को पढ़ती हो?
शब्दों को खुद बुनती हो,
या ढूंढ लेती हो किसी शब्दसागर से?

तो मैं कहूं…
जब देखूं मै घनघोर निशा में,
उस शशि की कौमुदी को,
तो मेरे हृदय में, मेघ बन भाव उमड़ आते हैं।
और शब्द लगते हैं बहने, किसी राग की तरह।

मैं चाहती हूं,
कि जब लेटूं मै उस मृत्यु शैय्या पर,
और छूट रही हो मेरी अंतिम स्वांसे।

तो उन आखरी सांसों के छूट जाने से पहले,
मेरी आत्मा का मुझसे रूठ जाने से पहले,
जब देखो मैं मुड़ कर उन क्षणों में खुद को,

तो लगे…
कि हां, इस जीवन काल में कुछ तो पूर्ण हुआ।

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